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लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अयोध्या मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट क्यों गई केंद्र सरकार?

नई दिल्ली : आखिर मोदी सरकार को अयोध्या में जमीन विवाद पर सुप्रीम कोर्ट क्यों जाना पड़ा? इसकी टाइमिंग को लेकर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. सूत्रों का कहना है कि राम मंदिर पर आगे बढ़ने के बारे में सरकार के शीर्ष स्तर पर संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होने के बाद ही मंथन शुरू हो गया था. इसी सत्र में मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण देने का संविधान संशोधन बिल पारित कराया था. इससे उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में बीजेपी को नाराज सवर्ण समर्थकों को मनाने में काफी हद तक मदद मिली, लेकिन बीजेपी को मिले फीडबैक में यह कहा गया कि राम मंदिर पर भी सरकार को कुछ करना होगा, ताकि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन की काट खोजी जा सके.  शीर्ष नेतृत्व को राम मंदिर को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं की भावना  का एक नमूना दिल्ली के रामलीला मैदान पर राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अध्यक्ष अमित शाह के भाषण के दौरान देखने को मिला. उन्होंने जैसे ही अयोध्या का नाम लिया देश के कोने-कोने से आए पार्टी के हजारों कार्यकर्ताओं ने इस कदर जयश्री राम के नारे और तालियां बजाईं कि शाह को अपना भाषण काफी देर तक रोके रखना पड़ा. सबसे ज्यादा आवाज़ उस कोने से आई जहां उत्तर प्रदेश और बिहार से आए बीजेपी  कार्यकर्ताओं को बैठाया गया था. हालांकि साल की शुरुआत में एएनआई को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने के सवाल पर कहा था कि सरकार न्यायिक प्रक्रिया पूरा होने का इंतजार करेगी. लेकिन यूपी बिहार से मिले फीडबैक के बाद तय किया गया कि इस मुद्दे पर अब कोई न कोई ठोस कदम उठाना जरूरी है ताकि कार्यकर्ताओं को और हिंदुत्व के वोट बैंक को ठोस संदेश दिया जा सके.


      सरकार की कोशिश यह थी कि कदम उठाते वक्त संवैधानिक मर्यादा और दायरे का ध्यान रहे, ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की किरकिरी न हो और न ही यह भाव जाए कि सरकार सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी कर रही है. उपलब्ध न्यायिक विकल्पों में पाया गया कि गैरविवादित जमीन को राम जन्मभूमि न्यास को दिए जाने का विकल्प है जिस पर सरकार आगे बढ़ सकती है. सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या विवाद पर सुनवाई में लगातार हो रही देरी से भी सरकार के सब्र का बांध टूटा. यह कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के पटना में दिए गए बयान से पता चला जिसमें उन्होंने कहा कि जब सबरीमला, कर्नाटक विधानसभा जैसे मामलों की सुनवाई तुरंत हो सकती है तो फिर जन्मभूमि विवाद पर सुनवाई बार-बार क्यों टाली जा रही है. बीजेपी को यह भी देखना है कि प्रयागराज में चल रहे अर्द्धकुंभ में विश्व हिंदू परिषद ने संतों की बैठक बुलाने की बात कह कर दबाव बढ़ा दिया. बीजेपी अर्द्ध कुंभ का इस्तेमाल 2019 के आम चुनाव के लिए  हिंदुत्व का मुद्दा कें में लाने के लिए कर रही है. योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल की वहां बैठक और संतों की धर्म संसद इसी का हिस्सा है. इसी दौरान तय किया गया कि राम जन्मभूमि न्यास से कहा जाए कि वे अपने हिस्से की जमीन सौंपने के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिखे. न्यास ने संसद सत्र खत्म होने के बाद इसी महीने यह पत्र कें सरकार को लिखा, जिसके आधार पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. हालांकि एक विकल्प सुप्रीम कोर्ट को नजरअंदाज कर सीधे शासकीय आदेश के जरिए न्यास को 42 एकड़ जमीन वापस करने का भी था, लेकिन शीर्ष स्तर पर कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के जरिए यह काम किया जाए. बीजेपी सूत्रों के अनुसार सरकार के इस फैसले ने कांग्रेस के सामने दिक्कत खड़ी कर दी है, क्योंकि अब उसे कहना होगा कि वह इस जमीन को न्यास को सौंपने पर क्या रुख रखती है. सुप्रीम कोर्ट से हरी झंडी न मिलने पर मोदी सरकार यह जमीन न्यास को सौंपने के लिए बजट सत्र में बिल लाने का विकल्प भी खुला रख रही है. कुल मिलाकर कोशिश यह है कि लोक सभा चुनाव तक राम मंदिर निर्माण के लिए कोई न कोई ठोस तस्वीर निकल कर सामने आए, ताकि हिंदी भाषी राज्यों में इसका फायदा उठाया जा सके. 


 


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